Monday, October 25, 2010

Gharibi --- Muflisi --- sher (Desh Ratna's Collection)

घर की दीवार पे कौवे नहीं अच्छे लगते
मुफ़लिसी में ये तमाशे नहीं अच्छे लगते


मुफ़लिसी ने सारे आँगन में अँधेरा कर दिया
भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं


अमीरी रेशम—ओ—कमख़्वाब में नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है


इसी गली में वो भूका किसान रहता है
ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान रहता है


दहलीज़ पे सर खोले खड़ी होग ज़रूरत
अब ऐसे घर में जाना मुनासिब नहीं होगा


ईद के ख़ौफ़ ने रोज़ों का मज़ा छीन लिया
मुफ़लिसी में ये महीना भी बुरा लगता है


अपने घर में सर झुकाये इस लिए आया हूँ मैं
इतनी मज़दूरी तो बच्चे की दुआ खा जायेगी


अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’!
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते


बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते—रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

बच्चे - shayari (Desh Ratna's Collection)



कम से बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ


दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन

बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था


जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर

धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा


क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है

धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है


बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद

अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते


इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मी से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं


सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता


बिछड़ते वक़्त भी चेहरा नहीं उतरता है
यहाँ सरों से दुपट्टा नहीं उतरता है


कानों में कोई फूल भी हँस कर नहीं पहना
उसने भी बिछड़ कर कभी ज़ेवर नहीं पहना

मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ
कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है


शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको
इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता


तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठ्ठी

उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था


रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम

कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता


धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है

ख़ुशी से कौन बच्चा कारखाने तक पहुँचता है


मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ

मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है


हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा

कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा


इक सुलगते शहर में बच्चा मिला हँसता हुआ

सहमे—सहमे—से चराग़ों के उजाले की तरह


मैंने इक मुद्दत से मस्जिद नहीं देखी मगर

एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा


इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते हैं

कहाँ पर है खिलौनों की दुकाँ बच्चे समझते हैं


ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन

किसी बच्चे के रोने की सदाएँ रोज़ आती हैं

फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं

वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाड़ू लगाते हैं


हुमकते खेलते बच्चों की शैतानी नहीं जाती

मगर फिर भी हमारे घर की वीरानी नहीं जाती


अपने मुस्तक़्बिल की चादर पर रफ़ू करते हुए

मस्जिदों में देखिये बच्चे वज़ू करते हुए


मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं

मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ


घर का बोझ उठाने वाले बच्चे की तक़दीर न पूछ

बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया


जो अश्क गूँगे थे वो अर्ज़े—हाल करने लगे

हमारे बच्चे हमीं पर सवाल करने ल्गे


जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया

हम उन परिंदों को फिर से घरों में छोड़ आए


भरे शहरों में क़ुर्बानी का मौसम जबसे आया है

मेरे बच्चे कभी होली में पिचकारी नहीं लाते


मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे

इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा


भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोये मगर

घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियाँ खाने लगा



मेरे बच्चे नामुरादी में जवाँ भी हो गये
मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ बाज़ारों को तकती रह गई

बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें, क़लम, दवात
मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया

वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को
इसलिए बच्चों पे ग़ुस्सा भी नहीं आता है

किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मेरे बच्चे की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं

धूप से मिल गये हैं पेड़ हमारे घर के
मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना

फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती
यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है

तमाम उम्र सलामत रहें दुआ है मेरी
हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले

हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती
मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे

माँ—बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक़्र—सी छाई रहती है
जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है

दोस्ती दुश्मनी दोनों शामिल रहीं दोस्तों की नवाज़िश थी कुछ इस तरह
काट ले शोख़ बच्चा कोई जिस तरह माँ के रुख़सार पर प्यार करते हुए
----munawwar rana

Sunday, October 24, 2010

माँ -- शायरी --- देश रत्न की संग्राहिका से

ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दीए से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है।

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हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

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हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं

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हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

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सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

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सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

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मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

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मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

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भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

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तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

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इस चेहरे में पोशीदा है इक क़ौम का चेहरा
चेहरे का उतर जाना मुनासिब नहीं होगा

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अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’
माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है

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मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है

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जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

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देख ले ज़ालिम शिकारी ! माँ की ममता देख ले
देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई

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मुझे भी उसकी जदाई सताती रहती है
उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है

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मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती उसको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता

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अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता

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गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

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कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है

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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

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ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

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मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

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मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है

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रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं

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वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा

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कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है


हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए

माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे


हवा उड़ाए लिए जा रही है हर चादर

पुराने लोग सभी इन्तेक़ाल करने लगे


ऐ ख़ुदा ! फूल —से बच्चों की हिफ़ाज़त करना

मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना


हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो

हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है


ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे

माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे


जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई


ख़ुदा करे कि उम्मीदों के हाथ पीले हों

अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह


घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें

मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है


यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा

ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा


स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं



अब देखिये कौम आए जनाज़े को उठाने

यूँ तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा


अब अँधेरा मुस्तक़िल रहता है इस दहलीज़ पर

जो हमारी मुन्तज़िर रहती थीं आँखें बुझ गईं


अगर किसी की दुआ में असर नहीं होता

तो मेरे पास से क्यों तीर आ के लौट गया


अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा

मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है


कहीं बे्नूर न हो जायें वो बूढ़ी आँखें

घर में डरते थे ख़बर भी मेरे भाई देते


क्या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे

विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती


कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे

माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी


क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर

सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही


धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

माँ बाप के चेहरों मी तरफ़ देख लिया था


कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे

वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है



किसी को देख कर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा

ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्ते—सुल्तानी पलटता है


दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन

माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है


दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं

कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है


दिया है माँ ने मुझे दूध भी वज़ू करके

महाज़े-जंग से मैं लौट कर न जाऊँगा


खिलौनों की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती


दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो

कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है


बहन का प्यार माँ की मामता दो चीखती आँखें

यही तोहफ़े थे वो जिनको मैं अक्सर याद करता था


बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर

माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है


बड़ी बेचारगी से लौटती बारात तकते हैं

बहादुर हो के भी मजबूर होते हैं दुल्हन वाले




खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से

बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही


मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे

सर पे माँ बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था


मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है

किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है


मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ

जिसके माँ बाप को रोते हुए मर जाना है


मिलता—जुलता हैं सभी माँओं से माँ का चेहरा

गुरूद्वारे की भी दीवार न गिरने पाये


मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं

सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया


घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं

ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गईं


मैदान छोड़ देने स्र मैं बच तो जाऊँगा

लेकिन जो ये ख़बर मेरी माँ तक पहुँच गई


‘मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


मिट्टी लिपट—लिपट गई पैरों से इसलिए

तैयार हो के भी कभी हिजरत न कर सके


मुफ़्लिसी ! बच्चे को रोने नहीं देना वरना

एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा


मुझे खबर नहीम जन्नत बड़ी कि माँ लेकिन

लोग कहते हैं कि जन्नत बशर के नीचे है


मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है

किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है


बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता

कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता


मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है

मोहब्बत माँ को भी मक्का—मदीना मान लेती है


माँ ये कहती थी कि मोती हैं हमारे आँसू

इसलिए अश्कों का का पीना भी बुरा लगता है


परदेस जाने वाले कभी लौट आयेंगे

लेकिन इस इंतज़ार में आँखें चली गईं


शहर के रस्ते हों चाहे गाँव की पगडंडियाँ

माँ की उँगली थाम कर चलना मुझे अच्छा लगा


मैं कोई अहसान एहसान मानूँ भी तो आख़िर किसलिए

शहर ने दौलत अगर दी है तो बेटा ले लिया


अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे

रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको


मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है

मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है


वो जा रहा है घर से जनाज़ा बुज़ुर्ग का

आँगन में इक दरख़्त पुराना नहीं रहा

वो तो लिखा के लाई है क़िस्मत में जागना

माँ कैसे सो सकेगी कि बेटा सफ़र में है

३९.

शाहज़ादे को ये मालूम नहीं है शायद

माँ नहीं जानती दस्तार का बोसा लेना


आँखों से माँगने लगे पानी वज़ू का हम

काग़ज़ पे जब भी देख किया माँ लिखा हुआ


अभी तो मेरी ज़रूरत है मेरे बच्चों को

बड़े हुए तो ये ख़ुद इन्त्ज़ाम कर लेंगे


मैं हूँ मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकाँ है

अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है


ऐ ख़ुदा ! तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे

मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी


भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो

शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा


खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे

तुझे ऐ मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँढ लेना है


ममता की आबरू को बचाया है नींद ने

बच्चा ज़मीं पे सो भी गया खेलते हुए


मेरे बच्चे नामुरादी में जवाँ भी हो गये

मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ बाज़ारों को तकती रह गई


बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें, क़लम, दवात

मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया


वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को

इसलिए बच्चों पे ग़ुस्सा भी नहीं आता है


किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता

मेरे बच्चे की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं


धूप से मिल गये हैं पेड़ हमारे घर के

मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना


फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती

यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है


तमाम उम्र सलामत रहें दुआ है मेरी

हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले


हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती

मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे


माँ—बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक़्र—सी छाई रहती है

जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है


दोस्ती दुश्मनी दोनों शामिल रहीं दोस्तों की नवाज़िश थी कुछ इस तरह

काट ले शोख़ बच्चा कोई जिस तरह माँ के रुख़सार पर प्यार करते हुए


माँ की ममता घने बादलों की तरह सर पे साया किए साथ चलती रही

एक बच्चा किताबें लिए हाथ में ख़ामुशी से सड़क पार करते हुए


दुख बुज़ुर्गों ने काफ़ी उठाए मगर मेरा बचपन बहुत ही सुहाना रहा

उम्र भर धूप में पेड़ जलते रहे अपनी शाख़ें समरदार करते हुए


चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है

मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है


अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी

अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है


मालूम नहीं कैसे ज़रूरत निकल आई

सर खोले हुए घर से शराफ़त निकल आई


इसमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं

देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाये


ओढ़े हुए बदन पे ग़रीबी चले गये

बहनों को रोता छोड़ के भाई चले गये


किसी बूढ़े की लाठी छिन गई है

वो देखो इक जनाज़ा जा रहा है


आँगन की तक़सीम का क़िस्सा

मैं जानूँ या बाबा जानें


हमारी चीखती आँखों ने जलते शहर देखे हैं

बुरे लगते हैं अब क़िस्से हमॆं भाई —बहन वाले

Saturday, October 23, 2010

बुलंद आवाज़ -- इंक़लाब की शायरी-- देश रत्न की संग्राहिका

तूफ़ान कर रहा था मेरे अजम का तव्वाफ़,
दुनिया समझ रही थी कि कश्ती मेरी भंवर में है .. सय्यद हुस्सैनी

Hum Jhuk Ke Mil Rahey Hai'n Toh Kamzor Math Samajh,
Phaldaar Shaakh Ho Toh Lachakti Zaroor Hai....

कह दो खुदा से कि लंगर उठा दे
मै तूफान की जिद देखना चाहता

चमक ऐसे नही आती है, खुद्दारी कि, चेहरे पर !
अना को हम ने दो दो वक्त का फाका कराया है !!

तरदामनी पै शैख़ हमारी न जाइयो,
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें।

ना जाने किसकी दुआओं का असर है,
मैं डूब भी जाता हूँ तो दरिया उछाल देता है..

Aatish-e-barq o Sahaab paida kar
Ajal bhi kaanp utthay, wo shabaab paida kar
tu inqalaab ki aamad ka intezaar na kar
jo ho sakay, to abhi inqalaab paida kar

nahi tera nasheman qasr-e-sultani ke gumbad par
ki tu shaheen hai basera kar pahadon ki chattanooon par!

YE SAR AZEEM HAI JHUKNE KAHIN NA PAAYE 'WASEEM'
ZARA - SI JEENE KI KHWAHISH PE MAR NAHI JAANA.

bina toote koi pahad bada nahi hota,
pahad ko badhne ke liye kai baar kai jagahon se tootna padta hai..

मेरा ज़मीन गयी हैं , मेरा आसमान बाकी हैं
की टूट कर भी मेरी जान , मेरा स्वाभिमान बाकी हैं
तू कर ले गुस्ताखी मुझे नेस्तनाबूद करने की
पैदा हुएँ हैं शान से , अभी कई अरमान बाकी हैं ..

ख़िरदमन्दों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है......

यही अंदाज़ है मेरा ,समंदर फ़तह करने का ....!
मेरी कागज़ कि कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं ..

मेरी कश्ती की रवानी देखकर तूफ़ान में
पड़ गए हैं सख़्त चक्कर में भँवर अपनी जगह..

हम भी दरिया है ,हमें अपना हुनर मालूम है ....!
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे ,रास्ता हो जाएगा ..

मैं खुद ज़मीन मेरा ज़र्फ़ आसमान का है,
कि टूट कर भी मेरा हौसला चट्टान का है..

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है

Raah agyaar ki dekhain yeh bhale taur nahin,
Hum Bhagat Singh ke saathi hain koi aur nahin. Zindagi humse sada shola e jawaani maange,
Ilm o hikmat ka khazana humdaani maange.
aisi lalkaar ke talwaar bhi paani maange,
aisi raftaar ke dariya bhi rawaani maange

Zindaggi se zindagi ka wasta zinda rahe,
Hum rahe jab tak hamara hosla zinda rahe.

katra katra mil jao...jo tanha tanha na beh pao... kataar ki pehli boond hoon main....saath mere tum jud jaao... ek se bane hum anek, ahista se dariya ban jao, dariya dariya beh chalo....aur samandar ban jao...

tu shaheen hai, parvaz kaam hai tera,
tere aagey aasman aur bhi hai..

हमने माना जंग कड़ी है, सर फूटेंगे खून बहेगा,
खून में ग़म भी बह जायेंगे, हम ना रहें ग़म भी न रहेगा..

हमें नफरत नहीं थी अंग्रेजों की कौमी सूरत से,
हमें नफरत थी उनके अंदाजे हुकुमत से.
अगर अपनों की हुकुमत रहबर हो नहीं सकती,
तो अपनों की सूरत से भी मोहब्बत हो नहीं सकती...

aie khakh nashino uth baitho
wo waqt kareeb aa pahuncha hai
jab takht girayenge jayenge
aur taaz uchale jayenge......

Thursday, October 14, 2010

राहत इन्दौरी की ग़ज़लें

मुर्ग़, माही, कबाब ज़िन्दाबाद
हर सनद हर ख़िताब ज़िन्दाबाद

मेरी बस्ती में एक दो अंधे
पढ़ चुके हर किताब ज़िन्दाबाद

यार अपना है क्या रहे न रहे
शहर की आब-ओ-ताब ज़िन्दाबाद

सीख लेते हैं गूंगे बहरे भी
नाराए-इंक़िलाब ज़िन्दाबाद

रूई की तितलियाँ सलामत बाश
काग़ज़ों के गुलाब ज़िन्दाबाद

लाख परदे में रहने वाले तुम
आजकल बेनक़ाब ज़िन्दाबाद

फिर पुरानी लतें पुराने शौक़
फिर पुरानी शराब ज़िन्दाबाद

दिन नमाज़ें नसीहतें फ़तवे
रात चंग-ओ-रबाब ज़िन्दाबाद

रोज़ दो चार छे गुनाह करो
रोज़ कारे-सवाब ज़िन्दाबाद

तूने दुनिया जवान रक्खी है
ऎ बुज़ुर्ग आफ़ताब ज़िन्दाबाद

Monday, October 11, 2010

Gar Firdaus-e-zameen asto Hameen asto,hameen asto hameen ast" If there is a Heaven anywhere it is here.