Monday, August 16, 2010

शायर

शायर
ऊंगली के पोरों में
सख़्त गर्मी है
कलम पकड़ो
स्याही उबलती है

हर्फ़ सुलगते है
काग़ज में आग लगे
धू-धू कर जलते हैं

ग़ज़लें मशालों सी
नज़्में चिरागों सी
शेर की एक लौ
बे वक़्त भड़कती हैं
ये आग जो जलती है

हर शायर के सीने में
लफ़्ज उबलते हैं
ज़ेहन के पतीले में
कुछ तो पकता है

हर वक़्त सीने में
भाप निकलती है
माथे के पसीने में
वक़्त के पन्नों में
निशान बनातें हैं

गर्म लावा सा
बहता ही जाता है
पिघली चट्टानों सा
जहॉ जमता है

वहीं मीर व गालिब का
दीवान मिलता है

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