शायर
ऊंगली के पोरों में
सख़्त गर्मी है
कलम पकड़ो
स्याही उबलती है
हर्फ़ सुलगते है
काग़ज में आग लगे
धू-धू कर जलते हैं
ग़ज़लें मशालों सी
नज़्में चिरागों सी
शेर की एक लौ
बे वक़्त भड़कती हैं
ये आग जो जलती है
हर शायर के सीने में
लफ़्ज उबलते हैं
ज़ेहन के पतीले में
कुछ तो पकता है
हर वक़्त सीने में
भाप निकलती है
माथे के पसीने में
वक़्त के पन्नों में
निशान बनातें हैं
गर्म लावा सा
बहता ही जाता है
पिघली चट्टानों सा
जहॉ जमता है
वहीं मीर व गालिब का
दीवान मिलता है
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