Sunday, October 24, 2010

माँ -- शायरी --- देश रत्न की संग्राहिका से

ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दीए से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है।

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हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

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हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं

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हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

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सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

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सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

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मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

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मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

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भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

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तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

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इस चेहरे में पोशीदा है इक क़ौम का चेहरा
चेहरे का उतर जाना मुनासिब नहीं होगा

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अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’
माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है

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मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है

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जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

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देख ले ज़ालिम शिकारी ! माँ की ममता देख ले
देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई

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मुझे भी उसकी जदाई सताती रहती है
उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है

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मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती उसको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता

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अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता

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गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

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कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है

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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

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ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

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मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

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मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है

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रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं

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वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा

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कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है


हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए

माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे


हवा उड़ाए लिए जा रही है हर चादर

पुराने लोग सभी इन्तेक़ाल करने लगे


ऐ ख़ुदा ! फूल —से बच्चों की हिफ़ाज़त करना

मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना


हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो

हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है


ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे

माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे


जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई


ख़ुदा करे कि उम्मीदों के हाथ पीले हों

अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह


घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें

मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है


यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा

ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा


स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं



अब देखिये कौम आए जनाज़े को उठाने

यूँ तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा


अब अँधेरा मुस्तक़िल रहता है इस दहलीज़ पर

जो हमारी मुन्तज़िर रहती थीं आँखें बुझ गईं


अगर किसी की दुआ में असर नहीं होता

तो मेरे पास से क्यों तीर आ के लौट गया


अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा

मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है


कहीं बे्नूर न हो जायें वो बूढ़ी आँखें

घर में डरते थे ख़बर भी मेरे भाई देते


क्या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे

विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती


कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे

माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी


क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर

सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही


धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

माँ बाप के चेहरों मी तरफ़ देख लिया था


कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे

वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है



किसी को देख कर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा

ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्ते—सुल्तानी पलटता है


दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन

माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है


दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं

कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है


दिया है माँ ने मुझे दूध भी वज़ू करके

महाज़े-जंग से मैं लौट कर न जाऊँगा


खिलौनों की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती


दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो

कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है


बहन का प्यार माँ की मामता दो चीखती आँखें

यही तोहफ़े थे वो जिनको मैं अक्सर याद करता था


बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर

माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है


बड़ी बेचारगी से लौटती बारात तकते हैं

बहादुर हो के भी मजबूर होते हैं दुल्हन वाले




खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से

बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही


मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे

सर पे माँ बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था


मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है

किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है


मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ

जिसके माँ बाप को रोते हुए मर जाना है


मिलता—जुलता हैं सभी माँओं से माँ का चेहरा

गुरूद्वारे की भी दीवार न गिरने पाये


मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं

सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया


घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं

ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गईं


मैदान छोड़ देने स्र मैं बच तो जाऊँगा

लेकिन जो ये ख़बर मेरी माँ तक पहुँच गई


‘मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


मिट्टी लिपट—लिपट गई पैरों से इसलिए

तैयार हो के भी कभी हिजरत न कर सके


मुफ़्लिसी ! बच्चे को रोने नहीं देना वरना

एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा


मुझे खबर नहीम जन्नत बड़ी कि माँ लेकिन

लोग कहते हैं कि जन्नत बशर के नीचे है


मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है

किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है


बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता

कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता


मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है

मोहब्बत माँ को भी मक्का—मदीना मान लेती है


माँ ये कहती थी कि मोती हैं हमारे आँसू

इसलिए अश्कों का का पीना भी बुरा लगता है


परदेस जाने वाले कभी लौट आयेंगे

लेकिन इस इंतज़ार में आँखें चली गईं


शहर के रस्ते हों चाहे गाँव की पगडंडियाँ

माँ की उँगली थाम कर चलना मुझे अच्छा लगा


मैं कोई अहसान एहसान मानूँ भी तो आख़िर किसलिए

शहर ने दौलत अगर दी है तो बेटा ले लिया


अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे

रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको


मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है

मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है


वो जा रहा है घर से जनाज़ा बुज़ुर्ग का

आँगन में इक दरख़्त पुराना नहीं रहा

वो तो लिखा के लाई है क़िस्मत में जागना

माँ कैसे सो सकेगी कि बेटा सफ़र में है

३९.

शाहज़ादे को ये मालूम नहीं है शायद

माँ नहीं जानती दस्तार का बोसा लेना


आँखों से माँगने लगे पानी वज़ू का हम

काग़ज़ पे जब भी देख किया माँ लिखा हुआ


अभी तो मेरी ज़रूरत है मेरे बच्चों को

बड़े हुए तो ये ख़ुद इन्त्ज़ाम कर लेंगे


मैं हूँ मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकाँ है

अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है


ऐ ख़ुदा ! तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे

मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी


भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो

शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा


खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे

तुझे ऐ मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँढ लेना है


ममता की आबरू को बचाया है नींद ने

बच्चा ज़मीं पे सो भी गया खेलते हुए


मेरे बच्चे नामुरादी में जवाँ भी हो गये

मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ बाज़ारों को तकती रह गई


बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें, क़लम, दवात

मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया


वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को

इसलिए बच्चों पे ग़ुस्सा भी नहीं आता है


किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता

मेरे बच्चे की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं


धूप से मिल गये हैं पेड़ हमारे घर के

मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना


फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती

यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है


तमाम उम्र सलामत रहें दुआ है मेरी

हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले


हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती

मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे


माँ—बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक़्र—सी छाई रहती है

जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है


दोस्ती दुश्मनी दोनों शामिल रहीं दोस्तों की नवाज़िश थी कुछ इस तरह

काट ले शोख़ बच्चा कोई जिस तरह माँ के रुख़सार पर प्यार करते हुए


माँ की ममता घने बादलों की तरह सर पे साया किए साथ चलती रही

एक बच्चा किताबें लिए हाथ में ख़ामुशी से सड़क पार करते हुए


दुख बुज़ुर्गों ने काफ़ी उठाए मगर मेरा बचपन बहुत ही सुहाना रहा

उम्र भर धूप में पेड़ जलते रहे अपनी शाख़ें समरदार करते हुए


चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है

मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है


अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी

अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है


मालूम नहीं कैसे ज़रूरत निकल आई

सर खोले हुए घर से शराफ़त निकल आई


इसमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं

देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाये


ओढ़े हुए बदन पे ग़रीबी चले गये

बहनों को रोता छोड़ के भाई चले गये


किसी बूढ़े की लाठी छिन गई है

वो देखो इक जनाज़ा जा रहा है


आँगन की तक़सीम का क़िस्सा

मैं जानूँ या बाबा जानें


हमारी चीखती आँखों ने जलते शहर देखे हैं

बुरे लगते हैं अब क़िस्से हमॆं भाई —बहन वाले

2 comments:

  1. माँ जो हमेशा मुझमे रहती है...
    धन्यवाद बहुत अच्छा लगा पढ़कर।

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  2. मुझे लगा सारे शेर आपके हैं। पर इसमें से कुछ मुनव्वर राणा के निकले

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